सरकारी नौकरी और पढ़ाई की चक्कर( Sarkari Naukri aur padhai) : “पढ़ते-पढ़ते बाल पक गए, पेट निकल गया… लेकिन नौकरी नहीं मिली!”
जब मैंने मैट्रिक क्या पास कर लिया, तो मोहल्ले वालों की सलाहें ऐसे बरसने लगीं जैसे मेरी किस्मत की चाबी उन्हीं के पास हो। सुबह-सुबह मेरे घर के दरवाज़े पर ‘शैक्षणिक मीटिंग’ शुरू हो जाती थी। मेरे पिताजी सबके बीच कुर्सी पर सीना तानकर ऐसे बैठे रहते, जैसे पूरी दुनिया में एक उन्हीं का बेटा मैट्रिक पास किया हो।
गांव के लोगों को बस एक ही चिंता खाए जा रही थी – “अब लड़के को आगे कौन-सी पढ़ाई करवाई जाए?”
कोई बोला – “आगे Science रख लो, इंजीनियर बनेगा…”
दूसरा चिल्लाया – “Biology लो, डॉक्टर बनो… घर में ही क्लिनिक खोल लो, इससे बढ़िया कुछ नहीं।”
फिर तीसरा बोला – “Commerce ले लो, Business में नाम करेगा। यकीन नहीं होता तो टाटा, अंबानी, बिल गेट्स को देखो… सब यहीं से निकले हैं!”
अब बारी गांव में कोचिंग पढ़ाने वाले मास्टर साहब की थी – “बेटा, ये सब छोड़ो… B.Ed कर लो, मास्टरी पक्की है।”
काफी माथा-पच्ची और हफ्तों की विचार-विमर्श और मोहल्ले की पंचायत के बाद, आखिरकार घर वालों ने Science रखवा ही दिया।
कॉलेज का चयन और इंटर की पढ़ाई :
अब टेंशन यह थी कि किस College में नामांकन (Admission) कराया जाए, क्योंकि जो विद्यार्थी मैट्रिक में First किया है, उसके लिए छोटा-मोटा College में नाम लिखवाना शान के खिलाफ थी। इसलिए बड़े सोचने-समझने के बाद शहर के सबसे प्रसिद्ध महाविद्यालय में Admission करने की फैसला किया गया।
नामांकन के लिए हम अकेले नहीं जा रहे थे, हमारे घरवालों के साथ गांव की कुछ ज्ञान मंडली भी साथ में थी। मास्टर साहब चार घंटे पहले से ही मेरे घर पर आकर बैठ गए थे, ताकि कोई कागजात छूट न जाए। बार-बार एक ही बात कहते – “मन लगाकर पढ़ना, कहीं बाहर मत निकलना, लड़की बाजी मत करना। यदि इसी तरह Inter भी पास किए तो आगे दिल्ली के College में B.Ed कर लेना।
अब हम तैयार हो चुके थे – किताबों से भरा भारी-भरकम बैग पीठ पर लादे, गांव के बुज़ुर्गों को प्रणाम करते हुए शहर की ओर निकल पड़े।
जाते हुए हमें लोग ऐसे देख रहे थे जैसे हम ISRO और तो NASA के लिए काम करने जा रहे हो।
कॉलेज में Admission के बाद :
अब Admission हो चुका था। College में Class के अलावा चार Tuition पकड़ लिए। पूरे जोश के साथ पढ़ाई शुरू कर दी। दिन-रात एक कर दिया।
दो साल की कड़ी मेहनत के बाद एक बार फिर तहलका – Inter में भी First आ गया।
अब तो Motivation आसमान पर था। लगने लगा था कि अब बस मंज़िल करीब है। खुशी में मिठाइयाँ बंटी और सलाहों की दूसरी खेप आ गई – “अब तो IIT-JEE दो!”
मैंने कहा – “भैया, JEE के लिए जेब में कुछ नहीं है।”
बोले – “कोचिंग ले लो, पैसा हम देख लेंगे।”
अरे, हम हैं ना… तुम Tension मत लो, आगे बढ़ो।
कई तो इतना भावुक हो जाते – “तू मेरा बेटा होता ना, खून बेच देता लेकिन इंजीनियर बनाता।”
लेकिन अब जो भी करना था, अपनी क्षमता के अनुसार ही करना था। पिताजी अलग ही सोच में थे – खर्च कैसे उठाया जाए? लेकिन उन्होंने भी ठान लिया था – चाहे कर्ज लेना पड़े या जमीन बेचनी पड़े, बेटे को पढ़ाऊंगा जरूर । इतनी बातें सुन-सुनकर बस एक ही बात याद रह गई – हमें पढ़ना है।
डिग्री के ढेर, नौकरी की तलाश।
Inter के बाद सोचा – सबसे सस्ता और ठीक रास्ता है B.Sc. करना। तीन साल तक लगातार पढ़ाई करता रहा। पूरा भरोसा था कि B.Sc. के बाद नौकरी पक्की।तीन साल बाद जैसे ही B.Sc. की डिग्री हाथ में आई, घर वालों ने पूछा – “अब क्या करोगे?”
मैंने कहा – “M.Sc. करेंगे।”
बोले – “क्यों? नौकरी नहीं चाहिए क्या?” मैंने कहा – “अभी नहीं, पहले पढ़ाई पूरी कर लेते हैं।” M.Sc. भी कर लिया। अब Competition के फॉर्म भरने शुरू किए। हर तरह की Vacancy के फॉर्म – SSC, Railway, Group D, Lab Assistant, Police , जो फॉर्म आया सब भरा। लेकिन Result का कहीं कोई अता-पता नहीं।
अब सोचा – कुछ करना ही पड़ेगा। Tuition शुरू कर दिया। जिन बच्चों को कभी गोदी में उठाया था, उन्हें अब पढ़ाने लगा। लोग कहने लगे – “भइया, पढ़ाते अच्छा हो, B.Ed कर लो।” फिर मैने सोचा चालों ये भी करते है लेकिन वेकेंसी आते आते कई साल निकल गए। आया भी तो उस समय जब आशा छोड़ चुके थे। सोचे B.ed किए ही है नौकरी पक्की , Result आया लेकिन सिर्फ कागज में ही रह गया। क्योंकि नौकरी उसी को मिलना था जिसकी सिफारिश थी। बस अब आगे सब कुछ भूल गए , सिर्फ इतना ही याद रहा कि हमारे पास B.Sc., M.Sc., B.Ed. की डिग्री है।
नौकरी तो मिली नहीं , जीवन कैसे गुजारे।
बाल पक गए थे, पेट निकल गया था। गांव में रहना भी मुश्किल हो गया। लोग देखने की जगह अब ताने मारते थे – घरवाले कहते अरे, पढ़ाई किया बहुत… अब करते क्या हो?” मैने अंतिम निर्णय लिया , ऐसे रास्ते चुना – जहां Certificate नहीं पूछा जाता सिर्फ काम पूछा जाता है , करना है या नहीं ! एक दिन कुछ दोस्तों के साथ चुपचाप सुबह दिल्ली के लिए रवाना हो गए।
नौकरी की तलाश में – ये नौकरी पक्की थी, क्योंकि इसमें किसी Certificate की जरूरत नहीं थी।
दोस्तो मैट्रिक में First करने का परिणाम ये हुआ कि जितना पढ़ाई में खर्च हुआ, आज उसी कर्ज को चुकाने में ज़िंदगी बीत रही है। शुरुआत कहाँ से की थी, याद नहीं… अब कहाँ जाना है, ये भी नहीं पता। बस ज़िंदा रहना है, पेट पालना है।
✍️ निष्कर्ष :
हमने पढ़ाई को अपनी जिम्मेदारी माना, समाज ने उसे उम्मीद बना दिया, और सरकार ने उसे एक मज़ाक बना छोड़ा।
आज की वास्तविकता यह है कि लाखों विद्यार्थी दिन-रात मेहनत कर रहे हैं, लेकिन सफलता सिर्फ कुछ गिने-चुने लोगों को ही मिल पाती है। इसका मतलब यह नहीं कि सफलता नामुमकिन है — कई लोग मेहनत से मुकाम तक पहुँचते भी हैं — लेकिन असफलता की संख्या कहीं ज़्यादा है।
इसलिए ज़रूरी है कि विद्यार्थी और उनके अभिभावक वर्तमान परिस्थिति और भविष्य की संभावनाओं को ध्यान में रखकर, सोच-समझकर निर्णय लें। सिर्फ भीड़ का हिस्सा बनने से बेहतर है कि वास्तविकता को समझें, विकल्पों को जांचें और उस रास्ते पर आगे बढ़ें जहाँ आपकी काबिलियत, रुचि और व्यावहारिकता — तीनों का मेल हो।
Disclaimer (अस्वीकरण):
यह लेख केवल व्यंग्यात्मक शैली में लिखा गया एक कल्पनात्मक वर्णन है, जो भारतीय समाज में शिक्षा और नौकरी से जुड़ी आम समस्याओं और अनुभवों को हास्य-व्यंग्य के माध्यम से दर्शाता है। इसमें उल्लिखित पात्र, घटनाएँ और संवाद पूरी तरह काल्पनिक हैं या सामान्य जनजीवन से प्रेरित हैं।
इस लेख का उद्देश्य किसी व्यक्ति, संस्था, वर्ग, समाज या सरकार की आलोचना या निंदा करना नहीं है, न ही किसी को आहत करना। लेखक का मकसद केवल सामाजिक सोच और व्यवस्था पर चिंतन और मंथन को प्रेरित करना है।
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