साहित्य कथा – आखिरी इच्छा। साहित्य हिंदी कहानी।

साहित्य कथा(Sahity katha)- आखिरी इच्छा। साहित्य हिंदी कहानी ।

भोला दास :

गांव में चाहे शादी-ब्याह हो, मुंडन हो, जनेऊ हो, या मृत्यु-श्राद्ध—कहीं भी अग्नि प्रज्वलित करनी हो, लकड़ी उठानी हो, या दूल्हे का बारात ले जाना हो—सारा बोझ भोला दास के कंधों पर ही आ टिकता था। वह भी सिर्फ एक कोर भात के लिए। दिन भर लोगों के घर-आंगन में चिपके रहते ताकि भर पेट भोजन मिल जाए।

उन्हें बुलाने की ज़रूरत ही नहीं होती थी, ऐसे उत्सवों में वे खुद ही पहुंच जाते। उनका कहना था –“काम-काज के आंगन में किसके पास समय रहता है बुलाने का? हम खुद आ जाते हैं।”

साहित्य हिंदी कहानी। : भोला दास एवं गांव का भंडारा।

दकौवा के जगने से पहले ही भोला दास गांव के चार चक्कर लगा आते। गले की पुरानी खांसी उनका ‘लाउडस्पीकर’ थी – खखारते चलते तो पूरा गांव समझ जाता – लो, भोला दास जाग गए। लोग जम्हाई लेते कहते –“पता नहीं आज किसका श्राद्ध करवाएगा… या किसके यहां भंडारा खुला है, जो भोला दास को नींद नहीं लेने दे रहा है।”

भोला दास सरकारी स्कूल के चापाकल पर स्नान करते, भींगे पांव ‘श्री सीताराम’ का जाप करते, और सिरसिराते सीधे मंदिर में घुस जाते। वहां जोर-जोर से तीन-चार बार घंटी बजा देते। आधा गांव उसी आवाज़ से जाग जाता। पड़ोसी बड़बड़ाते –

“पता नहीं ये आदमी कब मरेगा! खुद तो रात भर सोता नहीं और दूसरों को भी नहीं सोने देता।”

गांव में कोई दावत हो तो समझिए भोला दास का त्योहार आ गया। पूड़ी, कचौड़ी, तरकारी, खीर, जलेबी, रसगुल्ला – इनके नाम सुनते ही उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता था।

किसी शादी में वे ऐसे घुसते जैसे खुद दूल्हे के काका हों। बिना मतलब दूल्हे के पिता के पास बैठ जाते और उनकी बातों में “हाँ जी, हाँ जी” मिलाते। लगता जैसे पूरे ठेके का जिम्मा इन्हीं के हाथ हो।

भोजन की बात ही निराली थी – पहली पत्तल खत्म होते ही बच्चों की लाइन में लग जाते। कभी कहते –

“बच्चा छोटा है, खिलाना है।” तो कभी बहाना – “पंडित जी को प्रसाद देना है।”

गांव वाले हंसते – “भोला दास का पेट है या खजाना—खत्म ही नहीं होता।”

श्राद्ध में उनका चेहरा इतना गंभीर हो जाता कि लोग सोचते – अभी रो पड़ेंगे। घरवालों को समझाते –“जो आया है, वह एक दिन अवश्य जाएगा। दुनिया में कोई रहने के लिए नहीं आया। भगवान आत्मा को शांति दें।” लेकिन उनकी नजर असल में भोजन पर रहती। पत्तल पर बैठते ही गंभीरता घी की तरह पिघल जाती। खाते-खाते कहते –“आत्मा की शांति के लिए भरपेट खाना जरूरी है।”

लोग फुसफुसाते –“दुख के अवसर पर भी सुख ढूंढ़ना हो तो भोला दास से सीखो।”

मुंडन में बच्चे को गोद में उठा लेते और खुद पूड़ी तोड़ते। किसी ने टोका – “भोला दास, बच्चे को क्यों उठाए हैं?”

तो भोला दास हंसकर बोले –“बच्चा नखरे करता है, हम खिलाएंगे।” असल में बच्चा बहाना था, पत्तल असली कारण।

बस यही उनकी दिनचर्या थी। घर में अकेले रहने वाला आदमी और कर भी क्या सकता है? जीवन के अंतिम पड़ाव में उनके हाथ-पांव जल चुके थे, पर जैसे-तैसे जीवन की गाड़ी खींचते रहे। लोग उन्हें भोजखोर समझते थे, पर उनके जीवन का दर्द कोई नहीं जान पाया।

बेटे की पढ़ाई के लिए उन्होंने खेत-बाड़ी, मवेशी, गहना – सब बेच डाला। बेटा पढ़-लिखकर पत्नी-बच्चे के साथ शहर में बस गया। भोला दास गांव में अकेले रह गए।

आखिरी पल ।

एक सुबह, गांव के लोग उठे तो कुछ अजीब लगा। मंदिर की घंटी की आवाज़, जो रोज गूंजती थी, आज खामोश थी। सूरज सिर पर चढ़ आया था, पर गांव में अनजाना सन्नाटा पसरा था।

लोग खोजते-खोजते उनके जर्जर घर पहुंचे। वहां का दृश्य देखकर सबकी आंखें नम हो गईं। भोला दास अपनी खटिया पर पड़े थे – सांसें थम चुकी थीं। हाथ में बेटे की पुरानी तस्वीर कसकर पकड़े हुए। शायद उनकी आखिरी इच्छा थी – बेटे का मुख देखना।

गांव के लोगों ने उन्हें पूरे आदर और श्रद्धा के साथ अंतिम यात्रा दी। बेटा शहर से नहीं आया, पर गांव वालों ने कहा –“भोला दास का बेटा भले न आए, लेकिन गांव के ये सैकड़ों लोग ही उनके बेटे हैं।”

 

 

 

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