व्यंग्य: सिर्फ 7 दिन में महान पागल बनें — बिना किसी खर्च के, बिल्कुल Free , Vyang Katha

व्यंग्य : सिर्फ 7 दिन में महान पागल बनें — बिना किसी खर्च के, बिल्कुल Free ,(Vyang Katha ) 

ध्यान दीजिए : यह लेख केवल व्यंग्य और हास्य के उद्देश्य से लिखा गया है। इसका उद्देश्य किसी व्यक्ति, संस्था या किसी राज्य-प्रदेश की भावनाओं को ठेस पहुँचाना नहीं है।

यदि आप सच में तनावग्रस्त हैं, तो कृपया किसी विशेषज्ञ (Expert) से सलाह लें और स्वास्थ्य का हमेशा ख्याल रखें।

इस लेख में “पागल” या “पागलपन” का सम्बन्ध तनाव लेने अथवा दिमाग का दही करने से है।

अब सच बोलने से पहले आवाज थम-सी जाती है, क्योंकि बात चाहे कितनी भी सच्ची क्यों न हो, उसमें लोग कई “लेकिन/परन्तु” निकाल ही लेते हैं।

राजनीति और समाज की ऐसी स्थिति चली आ रही है कि — सच बोलना या अच्छा सोचना मतलब— अपने ही दिमाग को बेवजह तनाव (Depression) में डालना। लोग किसी भी बात को ऐसे छीलते है जैसे लोग प्याज छीलते है।

अगर आपके 🤣 दिमाग में ज्यादा समझदारी भरी हुई है, और आप सच में “पागल” होना या “दिमाग खराब” करना चाहते हैं, तो नीचे दिए गए उपायों को जरूर अपनाइए।

कुछ ही दिनों में आप एक अच्छे-भले, प्रमाणित पागल बन जाएँगे। 🤗 तो पेश हैं — “पागल होने के अचूक उपाय”👇

पागल होने का सही तरीके कौन कौन से है? : Vyang Katha 

कहते हैं कि “पागल होना कोई बीमारी नहीं, बल्कि मूर्खों के बीच प्रवचन देने का परिणाम है।”

एक बार मेरे भी दिमाग में थोड़ी-सी खुजली हुई, तो मैंने फ़ेसबुक पर एक पोस्ट डाल दी — “जीवन में पढ़ना-लिखना बहुत ज़रूरी है।”

लोगों का एक ही जवाब आया — “तूने पढ़-लिखकर क्या उखाड़ लिया?”

अगले ही दिन पोस्ट के साथ-साथ फ़ेसबुक को भी डिलीट करना पड़ा। वजह ये नहीं थी कि मैं बहुत समझदार था…

बल्कि इसलिए कि मैं थोड़ा कम समझदार निकला। 😅

खैर, ये तो मेरी कहानी थी —

अब आइए जानते हैं वे अचूक उपाय : 

जिनसे कोई भी समझदार इंसान आसानी से “पागलपन की डिग्री” हासिल कर सकता है। 🤓

पहला उपाय : 

1️⃣ बिहार के विकास पर चिंतन/ विचार (Thinking) करना।

बिहार का विकास करना मतलब — पत्थर को पानी में उबालकर खिचड़ी बनाने जैसा काम है।

कारण ये नहीं कि बिहार का विकास हो नहीं सकता, बल्कि इसलिए कि अगर कभी सच में विकास हो गया,तो टपोरी, स्टेज स्टार, छपरी, रोड-छाप और बड़े-बड़े सत्ताधारी मूर्ख नेताओं की दुकानें बंद हो जाएँगी।

और भाई, जब दुकान ही बंद हो जाए तो रोटी कहाँ से पकेगी? इसलिए इन नेताओं का पहला और सबसे पवित्र नियम यही है —

“सच बोलने वाले और अच्छे काम करने वाले की एंट्री बंद करो।”

अगर गलती से कोई समझदार या ईमानदार आदमी सिस्टम में घुस भी गया, तो उसे ऐसे घुमाओ कि वो भी अपने जैसा हो जाए — यानी जो पहले बदलाव लाने आया था,वही बाद में पद और पहचान बचाने में लग जाए।

आखिर राजनीति में आदर्श मरते नहीं हैं, बस धीरे-धीरे सरकारी गाड़ियों में चढ़ जाते हैं! 😏

अब बात करते हैं समाज के महाज्ञानी वर्ग की — यानी हमारे MA, BA, PhD पास बुद्धिजीवियों की। इनका मुख्य काम होता है सुबह-शाम चाय की दुकान पर बैठकर “विकास के मुद्दे” पर गहन शोध (Research) करना और अंत में “पागल” की मानद उपाधि प्राप्त करना।

सुबह उठते ही चाय पीते-पीते सोचिए — “बिहार का विकास आखिर कब होगा?” फिर शाम तक फेसबुक पर बहस करते रहिए। बस तीन दिन बाद आप पाएँगे कि

आपके दिमाग के अंदर एक नया Planning Commission खुल गया है।

जो काम 75 सालों में नहीं हुआ, उस पर लगातार विचार करते-करते आपका दिमाग खुद ही “विकासशील देश (Developed Country)” बन जाएगा!

इसके बाद समाज धीरे-धीरे आपको उपाधियाँ देने लगेगा — “पागल”, “हाफ Mind”, “Science Less ” की उपाधियाँ देने लगेगा और कभी-कभी “भविष्य के नेता” भी बोलने लगेंगे।😂

2️⃣ अच्छे पढ़े-लिखे नेता को चुनना। Hasy Vyang Kahani.

यह उपाय थोड़ा कठिन है, लेकिन “पागलपन” के लिए बहुत ही असरदार है।

अक्सर लोग कहते हैं — “वोट अच्छे नेता को दीजिए।”

लेकिन असली समस्या यह है कि सभी तो चोर ही हैं, ऐसे में सही नेता कहा से पैदा करें। Vote तो उन्हीं में से किसी को देना है।

फिर भी अगर आप ईमानदार, समझदार और शिक्षित नेता ढूँढने निकल पड़े है तो , पहले लोग कहेंगे — “भाई, तू नेता ढूँढ रहा है या भगवान?

और मान लेते है , यदि अगर गलती से आपने सच में वोट सही जगह दे दिया, तो मोहल्ले वाले तुरंत कहेंगे —“इसका कुछ इलाज करो, इसे राजनीति समझ नहीं आती!”

बस फिर क्या — अब आप ऐसे लोगों से बहस करेंगे। इसके बाद कुछ ही दिनों में आपको “पूर्ण रूप से पागल” घोषित कर दिया जाएगा। 😄

3️⃣ बेरोजगारी दूर भगाने की बात करना। Vyang Story 

अगर आप बेरोजगारी मिटाने की बात कर रहे है और इस प्रकार की सपना देख रहे हैं, तो ये ISO सर्टिफाइड पागलपन है।

योजनाएँ बनती हैं, आवेदन आते हैं, पर नियुक्ति तब होती है जब अगली सरकार बनती है।

परन्तु सरकार बदलते ही नियुक्ति खत्म हो जाती है। अब नए सरकार नए योजना लायेंगें , आप बस उम्मीद बनाए रखिए, क्योंकि उम्मीद ही सबसे बड़ा मेंटल Exerciese है।

सालों सालों इसी उम्मीद में आप बैठे रहिए। इस प्रकार आप महान बेरोगार हो जाएंगे , लोगों के सिर का बोझ बन जाएंगे। समाज भले ही आपको पागल न कहे , लेकिन आप खुद अपने आप को पागल समझने लगेंगे।

4️⃣ जात-पात , ऊंच नीच पर भाषण छोड़िए। Hindi Hasy Vyang Kahani.

किसी बड़े सभा में बोलिए —“हम सब इंसान हैं, जात-पात , ऊंच नीच कुछ नहीं होता।”

भीड़ पहले ताली बजाएगी, फिर पूछेगी — अच्छा, तुम्हारी जात क्या है? अब समझ जाइए कि बराबरी का सपना सबसे बड़ा पागलपन है।

भाषण तो दे सकते है लेकिन लोगों के मस्तिक में उतारना असंभव है। छोटे बड़े, ऊंच नीच तथा जात पात में बहुत ज्यादा अंतर नहीं हैं।

जब तक छोटे बड़े होते रहेगें तब तक जाति प्रथा बनी रहेगी। वास्तविकता यह है कि जिस प्रकार हर एक बड़े मछलियां, अपने से छोटे मछलियों को खाते है , उसी प्रकार समाज में बड़े लोग खुद के क्षमताओं के आधार पर अपने से छोटे लोगों को खाते है। ऐसे में इन्हें संतुलन करने की बात करना , मतलब सबसे बड़ी पागल पन है।

5️⃣ देश बचाओ ! पर पड़ोसी से बहस करना।

अगर आपके पास कोई काम नहीं है, और आप घर में बोर हो रहे हैं — तो पड़ोसी से बहस छेड़ दीजिए, और “देश बचाने” की जिम्मेदारी उठा लीजिए। क्योंकि पड़ोसी का दरवाज़ा मुफ्त है, और 24 घंटे खुला रहता है। 😄

बस किसी भी पड़ोसी से शुरुआत कीजिए — कहिए, “भाई, देश खतरे में है!”वो तुरंत पूछेगा — “किससे?”

अब यहीं से आपकी असली स्पीच शुरू होगी।

कहिए — किससे? भाई, तुम्हें कुछ पता भी है या नहीं!

घर में पड़े रहते हो, बाहर क्या हो रहा है ध्यान ही नहीं!फिलहाल पाकिस्तान से मामला गरम है, उधर चीन अपनी चाल चल रहा है।”

इतना कहते-कहते आप चीन, अमेरिका, पाकिस्तान और तुर्की —। सबको एक साथ गालियाँ देना शुरू कर दीजिए।

फिर जोर से पूछिए — भाई, तुम्हें पता है भारत का असली मित्र कौन है?”

पड़ोसी पूछेगा — “कौन?”

आप गर्व से जवाब दीजिए —

“कौन क्या! रूस है — वही सच्चा दोस्त!”

बस, अब लोग समझ जाएँगे कि आप “देशभक्त मोड” में हैं।पाँच मिनट में पूरा मोहल्ला इकठ्ठा हो जाएगा —

कोई बोलेगा — भाई, मोदी जी को फोन लगाओ!

दूसरा बोलेगा — नहीं, पहले चीन के एम्बेसी को ट्वीट करो!

तीसरा बोलेगा — अरे अमेरिका का उतना हाथ नहीं है इसमें!😏

देखते-देखते आपकी बहस लोकल से ग्लोबल हो जाएगी,

और आप अपने क्षेत्र के “डेली नेशनल सिक्योरिटी सलाहकार ” बन जाएँगे। 🤣

इसके बाद जब आप हर मुद्दे पर “देश बचाने” निकलेंगे, तो लोग धीरे-धीरे आपको अंधभक्त कहने लगेंगे और अगर हालात ऐसे ही चलते रहे, तो समाज एक दिन आपको “पागल” घोषित कर देगा — वो भी राष्ट्रहित में। 🇮🇳😄

💻 6. फेसबुक पर सच लिखना —

“ऑनलाइन पागलपन की ओपनिंग सेरेमनी” 🤪

अगर आपने सच बोलने की ठानी है, दुनिया को सुधारने निकल पड़े हैं, और मंच चुना है — Facebook, तो भाई, आपको “मानसिक शौर्य पुरस्कार” मिलना चाहिए!

क्योंकि फेसबुक पर सच लिखना मतलब — शेर के पिंजरे में जाकर उससे कहना — आराम से बैठो, मैं बस तुम्हारी नाक में उंगली करने आया हूँ।

यहाँ लोग आपकी पोस्ट नहीं पढ़ते — पहले नाम देखते हैं, फिर यह जानने की कोशिश करते हैं कि आप किस जाति के हैं। अगर आप उनके जाति ,इलाके या पहचान से निकले,

तो कहेंगे — “अरे, ये तो कल का छौंकरा है, अब ज्ञान देने निकला है!” 😉 इसके बाद देखेंगे कि आपकी बातें

उनके पक्ष में हैं या विपक्ष में।

अगर पक्ष में हैं — तो “देशभक्त” बहुत बढ़िया।

नहीं हैं — तो “देशद्रोही” घोषित कर दिए जाएँगे।

अर्थात सच बोलने का मतलब है — एक पैर पर खड़े होकर बिजली का खंभा पकड़ना। देखने में आसान, पर परिणाम खतरनाक!

अब अगर आप लिख देंगे —

“देश को सुधारने के लिए ईमानदार होना ज़रूरी है।”

तो कमेंट सेक्शन में महाभारत शुरू हो जाएगी —

पहला बोलेगा — “भाई, पहले अपना घर संभाल।” 😏

दूसरा बोलेगा — “तू किसी पार्टी का एजेंट है क्या?”

तीसरा बोलेगा — “तेरे जैसे लोग ही देश पीछे कर रहे हैं।”

चौथा बोलेगा — “ये असली अंधभक्त है।”

पाँचवाँ बोलेगा — “मनुवादी सोच वाला है।”

छठा बोलेगा — “बहुत बड़ा हिंदू बन गया है रे तू।”

सातवाँ बोलेगा — “अभी तू पैदा ही लिया है बेटा।”

यानि आपकी पोस्ट नहीं, आपका चरित्र प्रमाण पत्र चेक हो जाएगा।

अब मान लीजिए आप फिर भी डटे रहे — हर दिन फेसबुक पर सच लिखते रहे, तो आपको जल्द ही दो उपाधियाँ मिलेंगी — “पागल” और “इंटरनेट वायरस”।

इसके बाद फैमिली मीटिंग में निर्णय लिया जाएगा —इसका फेसबुक बंद करा दो, दिमाग फिर गया है।” 😂

सच लिखने का सबसे बड़ा जोखिम यही है —

आप खुद तो कुछ नहीं पाते,

पर बहुतों की नींद उड़ा देते हैं।

आपको लगता है आपने “सच्चाई की आग” जलाई है,

पर बाकी लोगों को लगता है कि आपने न्यूज चैनल की नकल शुरू कर दी है।

धीरे-धीरे आप नोटिस करेंगे — Like घट गए है , Friend हट चुके है और जो बचे हैं, वो सिर्फ यह देखने आते हैं कि आज कौन-सा सच बोला है।

7. लोगों को समझाना कि — “जनता चाहे तो कुछ भी कर सकती है” सरकार बदल सकती हैं!

अगर आप यह मानते हैं कि “जनता चाहे तो कुछ भी कर सकती है”, और यही बात लोगों को भी समझाना चाहते हैं,

तो आपको बहुत-बहुत बधाई है — क्योंकि आप अब पागलपन के प्रीमियम लेवल पर पहुँच चुके हैं। 🥴अब आपके अंदर एक “Mental Gym” खुल चुका है।क्योंकि यह बातें हमारे देश में कहने के लिए तो बहुत अच्छी लगती हैं, पर ज़मीन पर उनका असर बहुत कम दिखाई देता है।

हाँ, यह सच है कि जनता चाहे तो बहुत कुछ कर सकती है — लेकिन समस्या यह है कि जनता खुद अलग-अलग विचारों और समूहों में बँटी हुई है। एकता की जगह मतभेद ज़्यादा हैं, और ऐसे में कोई अकेला व्यक्ति अगर बदलाव की बात करता है, तो अक्सर वह अकेला ही पड़ जाता है। जनता तो हर पाँच साल में बस पोस्टर ही फाड़ पाती है — बाकी सब वही रहता है। जब सत्ताधारी गलती करते हैं, तो उसे “नीति निर्धारण” कहा जाता है, और जब जनता गलती करती है, तो कहा जाता है “कानून का उल्लंघन”। यानी दोनों ही स्थितियों में असर जनता पर ही पड़ता है।

अब सोचिए — जहाँ कानून बनाने की शक्ति, निर्णय लेने की प्रक्रिया, और मीडिया जैसे माध्यमों का संचालन

सब कुछ उन्हीं के पास हो, वहाँ आम जनता कर भी क्या सकती है?

बस सोशल मीडिया पर एक पोस्ट लिख देती है —

“जनता चाहे तो कुछ भी कर सकती है।”

और उसी पोस्ट के नीचे वही लोग कमेंट कर देते हैं —

“सही कहा भाई, लेकिन कुछ हो नहीं सकता।”

फिर सारी बातें बस कमेंट बॉक्स तक सीमित रह जाती हैं। 😅

यह किसी योजना का नाम नहीं, बल्कि देश की राष्ट्रीय पागलपन प्रवृत्ति (RPP – Rashtriya Pagalpanti Programme) है, जहाँ हर नागरिक को पाँच साल में एक बार“शक्ति प्रदर्शन” का मौका मिलता है —

मतदान केंद्र तक जाकर EVM का बटन दबाने का।

फिर पाँच साल तक वही उँगली देखकर सोचता रहता है —

“शायद अगली बार कुछ बदलेगा।”

जब जनता सवाल करती है,

तो जवाब आता है — “आप कानून के दायरे में रहिए।”

अब जनता समझ नहीं पाती कि वह दायरा कितना बड़ा है —

इतना कि उसमें उसकी आवाज़ समा जाए,

पर असर बाहर निकल न पाए।

संविधान एक मजबूत और संतुलित ढांचा है —

जो सभी नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए बना है।

पर जब नीतियाँ और व्यवस्थाएँ जटिल हो जाती हैं,

तो आम लोगों की आवाज़ कहीं न कहीं धीमी पड़ जाती है।

यानी “तुम अपनी बात कहो, पर मर्यादा में रहकर।”

और जब यही मर्यादा बहुत लंबी खिंच जाती है,

तो सच बोलने वाले लोग “परेशान” या “अलग सोच वाले” कहे जाने लगते हैं।

फिर जनता क्या करती है?

कुछ लोग सोशल मीडिया पर गुस्सा निकालते हैं,

कुछ बहसों में उतर जाते हैं,और अंत में वही पुरानी कहानी दोहराई जाती है। लोग धीरे-धीरे थक जाते हैं, अपनी उम्मीदें छोटी कर लेते हैं, और जीवन की रोज़मर्रा की जरूरतों में समझौता कर लेते हैं।

 

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